बड़ी उत्सुकता रहती थी मुझे धर्म कर्म में, लेकिन देखा सबके घर में मन्दिर है पर मेरे घर में किसी ने मन्दिर बनवाना जरुरी ही नहीँ समझा, बड़ी निराशा होती थी, जाने सब कैसे रह लेते है बगैर पूजा पाठ किये,
बडो से सुना था जहाँ धर्म की बातें नहीँ होती वहां नाकारत्मक ऊर्जा वास करने लगती थी, नकारात्मक ऊर्जा मतलब दैत्य दानव, फिर क्या आशन्ति ही आशन्ति " ये सब मीना बहु अपनी छोटी बहन से केह रही थी,
मीणा अपने परिवार के साथ गुजरात के पोरबंदर में रहती थी, और मीणा का परिवार एक साधारण सा परिवार था,
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मीणा स्वाभाविक तौर से ईस्वर की अनन्य भक्त थी, परन्तु वह ससुराल के माहौल से अक्सर परेशान रहती, क्युकि वहां भईयौ में अक्सर तु तु मै मै होती रहती, जो की मीणा को बिल्कुल पसंद नहीँ था,
घर की ऐसी अवस्था से वह खुद परेशान रहने लगी, मन ही मन उसने सोच लिया, चाहे जो हो पर मै अपने घर में एक प्यारा सा मन्दिर बनवा कर ही रहूंगी....
वह धीरे धीरे समयानुसार अपने सास ससुर और पति, के कानो में डालती रही की एक मन्दिर तों इस घर के लिए जरुरी ही है, चाहे जो कहो,
समय समय पर किसी ना किसी तरिके से एक ही बात पहुंचने से यह बात सीधा दिल दिमाग़ पर असर करता है, और जो भी हो एक ना एक दिन कोई भी राजी हो जाता है, इसी तरह मीना बहु के ससुराल वाले के अंदर मन्दिर के लिए ना से हाँ में बदल गयी,
फिर भी मंजिल अभी दूर थी ... अभी तों बस पहला पड़ाव ही पार हुआ था, घर में मन्दिर बनवाना बड़ी बात तों नहीँ थी, लेकिन जिसके घर में पहले कोई पूजा स्थल ना हो उसके घर में मन्दिर का निर्माण बड़ी बात थी...
मन्दिर मन्दिर के नाम से पूरा वातावरण शुद्ध होने लगा, और मीना की सासुमा के दिमाग़ में कई तरह की योजनाए जन्म लेने लगी,
कहीं ना कहीं वह भी मन्दिर बनवाने में आस्था रखती थी, घर में कहीं कहीं मरम्मत करवानी थी, इसलिए पहले वह कार्य हो जाये फिर हम मन्दिर के लिए सोचेंगे, एक समय निश्चय किया गया, की सारे काम निपटा कर ही हम मन्दिर में हाथ लगाएंगे.......
और सारे काम निपटाते हुए लगभग छ: महीनो का वक्त लगने वाला था.... और इन छ महीनो के बाद मन्दिर का निर्माण शुरु होने को था,
मीणा मन ही मन हर दिन गिनती करती, वह चाहती थी बस जल्द से जल्द मुझे मेरा मन्दिर मिले, जहाँ मै शान्ति से अपने दिन रात ब्यतीत करू,
देखते देखते वह छ माह भी जैसे तैसे कट गये, आज से मन्दिर का निर्माण चालू होने को था,
मीणा ने ससुराल के सभी लोगो के लिए ईश्वर से एक मन्नत मांगी " की हे प्रभु आप यदी मेरी मनोकामना जल्द पूर्ण कर दे तों मै द्वारकाधीश के दर्शन सहपरिवार कर आऊं, द्वारकाधीश का मन्दिर पोरबंन्द्रर से कुछ घंटो की दुरी पर था,
मन्दिर निर्माण कार्य शुरु हो गया, मन्दिर से ठीक सटा एक बड़ा बगीचा भी बनवाया जा रहा था, जिसमे सुंन्द्र सुंदर क्यारियों वाले गाच्छ तथा छोटे मोटे पौधे लगवाने के लिए मीणा ने पहले ही सोच रखा था,
मन्दिर बनने की ख़ुशी और बेचैनी ने जैसे मीणा का सुकून ही अस्त ब्यस्त कर दिया हो, आखिर मन्दिर भी बड़े बड़े विघ्न को टालते हुए बन रही थी, क्युकि भगवान स्वम् अपने घर को बनवा रहे थे,
कई तरह के निर्माण कार्य होने थे, जिसमे इंतज़ार पथर के कार्य, मार्बल के कार्य, और विधुत के कार्य और छोटी मोटी कलाकारी के कार्य भी होने को थे,
मीणा बस उस क्षण की प्रतीक्षा में थी के बस अब मेरा मन्दिर मुझे कोई पुरी तरह बनाकर सौप दे, ताकि मै इसे अपनी पसंद के अनुसार बाकी साज श्रीगार कर सकू,
मरम्मत के कार्य के दौरान एक बड़ी विचित्र घटना हो रही थी, जैसे ही निर्माण कार्य आरम्भ होता, ठीक उसी समयानुसार जाने खान से एक पक्षी वहां उपस्थित हो जाता, और सीधा साँझ ढलने के बाद ही वहां से हटता, पहले कुछ दिनों किसी की नजर नहीँ गयी,
फिर एक दिन कार्य कर रहे मजदूर ने उस पक्षी को कंकर मरते हुए कहा.."क्या रें तु तुम आज भी यहां आ गये, "
"क्या मिलता है दिनभर येसब देखकर " पक्षी चुपचाप एक् जगह बैठा सौ सीधा साँझ 4 बजे ही वहां से हटा......
अब यौ यह हरदिन की बात थी....
सभी जान गये उस पक्षी की लीला..... और सभी उसे भगवान का दूत समझकर प्यार से स्वागत करते,
अब निर्माण कार्य समाप्त होने को था.........
मीणा की तमन्ना पुरी होने को थी,,,,, भगवान ने मीणा की मन की बेचैनी समझते हुए उसे दर्शन देने के लिए उपस्थित थे,
रात को अर्धरात्रि में मीणा की क्षण भर आंखे बंधोते ही प्रभु ने उसे दर्शन दिए,,,, कहा कुछ नहीँ बस आँखों को दर्शन देकर उन्होंने ये बताने का प्रयास किया अब तुम निश्चिंत रहो........ मै आ गया हु, सब अच्छा होगा,
आनंद मना रही मीणा प्रभु के इशारे समझ जाती है, परन्तु उसके सामने अभी एक और चुनौती आने को थी.......
शुभ दिन तारीख निकाल कर मन्दिर का आरम्भ करने के लिए ज़ब उसकी ससुराल वालो ने पंडित जी को बुलवाया तों..... उन्होंने कहा की आप ने मन्दिर तों निर्माण करवा लिया है, लेकिन अभी एक महीने में मात्र एक दिन ही शुभ मुहूर्त है वो भी दो घंटो के लिए जो की असम्भव है........ और इधर मन्दिर को ज्यादा दिन तक बंद या बिना पूजा पाठ के रखना भी शुभ नहीँ माना जायेगा...या तों आप एक माह रुक जाये,
भगवान की स्थापना करना बड़ा फलदाई कार्य है, जिसके लिए इस माह के मध्य में एक अच्छा दिन तों है मगर मात्र दो घंटो के लिए या तों आप उस दिन कर लो, या महीने बाद ही होगा,
तों सबने पूछा की कोई ऐसा उपाय जो हमारे और मन्दिर के हित में हो...... तब पंडित जी ने बताया की आप उस दिन एक कार्य कर सकती है जिससे सारी अपवित्रता स्वम् कट जाएगी, और स्थापना भी सफल रहेगी,
मीणा ने पूछा वह कौन सा उपाय है,,, जो पंडित जी ने कहा तुम्हे प्रथम नीले रंग की बड़ी मछली द्वार पर रख रख कर सारे काम करने होंगे....उससे सारी अशुभता नष्ट हो जाएगी, यह मछली जीवित होनी चाहिए, और पानी से भरे पात्र में प्रथम इसे पूज कर तब देव पूजन करना होगा,
मीणा व सभी जन आश्चर्य में पड़ गये,,, फिर सबने सोचा सायद यह भी कोई भगवान की महिमा होंगी.... जो हमें इस तरह कुछ करना पड़ रहा है... वे राजी हो गये....
पंडित जी के बताये अनुसार नीले रंग की बड़ी मछली कहीं नजर नहीँ आया, उधर पूजा की तैयारी की जा रही थी... परन्तु मछली तों मिल रही थी क्युकि सबका रंग मेलछा था, नीले रंग में बड़ी मछली किसी ने देखि ही नहीँ, सभी ऐसा केह रहे थे, मीणा के पति ने सोचा की यदी मछली ना होती तों पंडित जी हमें क्यूँ बताते,फिर वह घर आ गये, और सारी बात मीणा को बताया,
जो भी हो ..... हमें ऐसी मछली तों ढूढ़ना ही होगा ये सोच मीना निकल पड़ी, सामने के बड़े बड़े जलाषयो से निकली स्वेत वरणीय मछलिया मे से एक मछली को जल से भरे बर्तन में लाकर घर ले आई..... सब देख कर बोले ये तों नीली मछली नहीँ है,
मीणा ने कहा " मछली तों है " हमें कार्य पूरा करना है.... समय भी निकला जा रहा था इसलिए मै बस इस मछली को ले आई,
सबने कहा " कोई बात नहीँ, ना से भला हाँ "
फिर मछली को अच्छे से नहलाया गया, उसे दाना पानी देकर साफ और स्वच्छ बर्तन में पानी भरकर मन्दिर के द्वार से लगाकर रख दिया....
यह मछली एक मीटर लम्बी थी जबकि चौड़ाई में बिल्कुल कम थी, देखने में साँप की तरह इधर उधर घूम रही थी,
सभी एक जुट हो गये, सुंदर भजन कीर्तन के साथ सभी सुहागन महिलाओ ने पुजारी जी के साथ मन्दिर में पहले मछली को फिर भगवान की प्रतिमा का पूजन किया,
पूजन आरती के साथ वहा का रौनक देखने लायक था,,,,, मछली के माथे पर सिंदूर के टिके लगाये जाने के बाद वह मछली लाल हो गयी,
लाल पानी में मछली चहलकदमी करती जा रही थी,
मन्दिर में दिब्य गंध और दिब्य ज्योति फैली थी, जैसे भगवान भी उपस्थित हो,
पूजन के बाद मछली को पुनः सरोवर में छोड आने की बात थी, परन्तु किसी का दिल ना किया की इस सुंदर और प्यारी से मछली को खुद से अलग करे,
उस मछली के उचित उसी मन्दिर में एक स्थान बनवाया गया.......... जहाँ वह आराम से रह सके... सभी उस मछली को भी पूजनीय मानते, और प्यार से सहलाते,
मछली की चहलकदमी मन्दिर की शोभा बड़ा देती, मीणा के जीवन की सबसे बड़ी तमन्ना पूर्ण हो चुकी थी, इसलिए वह सह परिवार द्वारका धीश हो आई,
अब वह घर मन्दिर और अपनी आस्था के झूले में झूल रही थी, एक तरफ वह भगवान की प्रतिमा को देखती दूसरी और उस प्यारी मछली को,
सुबह सुबह दर्शन करके ही मन खुशीयों से भर जाता,
वह मछली बड़ी प्रजाति की थी, और वृद्ध हो चली थी, धूप की तेज रौशनी पड़ते ही उसका चिकना शरीर चमकने लगता ,
सबने देखा की इस मछली के ऊपर एक नीले रंग की लकीर उभरने लगी थी, जो ठीक वैसा था जैसा पंडित जी ने बताया था, सभी हैरान थे की हमने तों साधारण मछली लाया था, लेकिन भगवान की कृपा पाकर यह भी असाधारण हो गयी थी,
एक दिन वह मछली जल में हमेशा के लिए स्थिर हो गयी जिसके बाद उसी बगीचे में मछली रानी को स्थान दिया गया....
और मन्दिर पहले से अधिक दिब्यता से भर गया, क्युकि अब वह मछली भी अपना पूर्ण आशीर्वाद दे रही थी,
मीणा ने अपना पूरा जीवन ईश्वर के चरणों में बिताया,,,,,,,,, जिसके बाद उसकी कोई इच्छा अधूरी नहीँ रही, वह भी मरने के बाद वैकुंठ गयी
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